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        माघ मास की धूम

 
कुहरे से लिपटी भोर कहे
उठ रे मन, माघ मास है
संगम तट की भीड़ पुकारे
भक्ति ही सच्ची आस है

भोर जगी, संकल्प सजे
मन ने त्यागे मोह जाल
दीपक जले प्रेम का भीतर
साँसें हर इक मंगल ताल
वृक्षों पर हैं ओस के मोती
धरती की उजली घास है
कुहरे से लिपटी भोर कहे
उठ रे मन, माघ मास है

जप–तप के सँग सँग रहता
माघ महीना, पुण्य प्रवास
कहीं ध्यान में साधु बैठा
कहीं धूप के कठिन प्रयास
दिवस निखरता सोने-जैसा
कोहरा टूटा अनायास है
कुहरे से लिपटी भोर कहे
उठ रे मन, माघ मास है

- निरुपमा सिंह
१ दिसंबर २०२५

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