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         गंगा आयीं द्वारे

 
दिन की फिर सिकुड़ी है चादर
रजनी पंख पसारे

नदी नींद की ठंडी ठंडी
सुबह नीर है गर्म
फेंक रजाई सूरज निकला
करने पथ पर कर्म
दो मौसम के संगम में फिर
कल्पवास तन वारे

पीली सरसों मण्डप डाले
खेतों की अगुआई
बँसवारी में चहक रही है
पुरवा की शहनाई
बसंत पंचमी की वीणा में
गेंदा रूप निखारे

खटिया पर सुस्ताती धूप
मूंगफली चटकाए
मक्का है आँचल फैलाए
छीमी दौड़ी आए
सुख औ' दुख का फंदा डाले
मन प्यादा जीते हारे

- ऋता शेखर 'मधु'
१ दिसंबर २०२५

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