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        हँसता आया माघ

 
पूस हुआ कल 'नौ दो ग्यारह'
संत हुआ है दाघ, हँसता आया माघ

सरदी आई वह शरीर पर
चादर नई लपेटी
चली गई सूरज की गरमी
डेरा-डला समेटी
घात लगाकर बैठी बिल्ली
क्षण में मूस चपेटी

गुफा-रजाई में घुस जाता
सूर्य-तपन का बाघ

सजी हुई है आग-अँगीठी
घर-घर न्यारी-न्यारी
कविता लिखती है फसलों की
हरियल क्यारी-क्यारी
धूप खिली है बनी सेविका
लगती प्यारी-प्यारी
अनुभव निकले हृदय-कुंभ से
भाव हुआ है घाघ

उपसंहार लिखे त्योहारों
के फूलों के कुंदन
भँवरों के टोले निकले हैं
गाँव-गाँव में गुंजन
बदलावों के ऋतिक अलंकृत
शीत काल का मुंडन
घाट-घाट पर स्नान-दान है
सूर्य देव का 'आघ'

- शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'
१ दिसंबर २०२५

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