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        अबका माघ

 
धन-ऋण गुणा-भाग
कर के ही गुजर रहा है अब का माघ
इच्छायें बिखरी सड़कों पर पाला मार
 गया है माघ

सर्द हवाएँ
हुईं कँटीली सूरज का बदला है रूप
समय नीड़ पर ठहर गया है थोड़ी झलक रही है धूप
बरसों बाद लगा कि मौसम आज
हुआ है इतना घाघ

चुटकी भर थी
मिली भलाई मुट्ठी भर तन्हाई में
डूब गया है कस्बा सारा कम्बल शाल रजाई में
किन्तु बावरा मन अकुलाया
सारी ही सीमाएं लाँघ

कंकड़ पत्थर
खूब नुकीले पैडगरी लगती वीरान
भुतहा पत्ते खड़खड़ करते दिखा रहे हैं अपनी शान
दुबक गया है जंगल सारा छिपे
माँद में भालू बाघ

- श्रीधर आचार्य 'शील'
१ दिसंबर २०२५

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