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        ठंडी हवाएँ

 
आ गयी हैं माघ की ठंडी हवाएँ
कुछ बताओ किस तरह
से पार पाएँ

रात का हर पल हुआ बोझिल बहुत ही
दूर लगती भोर की मंजिल बहुत ही
हर घड़ी बस मौन रहकर गुजर जाती
जिन्दगी मजबूर होकर कसमसाती
सोचते सब कष्ट निज
किसको बताएँ

चाँदनी भी ठंड में मन को न भाती
व्यर्थ ही वातावरण में बिखर जाती
दृश्य सुन्दर किन्तु शीतलता बढ़ाते
देख जिनको दाँत भी हैं किटकिटाते
भोर में नित धुंध के
स्वर गुनगुनाएँ

गर्म कपड़े कुछ हमें राहत दिलाते
सूप गर्मागर्म सब पीते पिलाते
धूप के दिन भी सभी को खूब भाते
बीतते कुछ इस तरह हैं दिवस जाते
माघ के अनुरूप हम
मन को लगाएँ

घेर अंगीठी सभी हैं बैठ जाते
सेंकते आपस में गप्पे भी लड़ाते
बाँटते दुख दर्द हर्ष विषाद अपने
किन्तु मन के सब बता पाते न सपने
किस तरह सब आपसी
रिश्ते निभाएँ

- सुरेन्द्रपाल वैद्य
१ दिसंबर २०२५

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