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         माघ के रंग अलग

 
अगहन अन्न भरे घर- आँगन
माघ भरे ठिठुरन अंगों में!

सुबह- शाम घनघोर कुहासे
आ जाते हर रोज कहाँ से
सोच रही है बैठी काकी
हुक्के पर चीलम सुलगाके
गुमसुम हुआ सुआ पिंजरे मे
सिमट रहा
अपने पंखों में!

लेकिन जितना घना कुहासा
उतनी ही है मीठी आशा
आओ हम सब इसको सह लें
गेंहू की उन्नत हों फसलें
ऐसे ही जीते हैं काका
हार - हार
जीवन- जंगों में!

छोड़ें सब आयें तो क्षण - भर
खिले हुए फूलों को देखें
ओस नहाईं पंखुड़ियों से
मोती झरते तन को पेखें
रंग बहुत है मगर माघ के
रंग अलग है
इन रंगों में!

- उदय शंकर सिंह 'उदय'
१ दिसंबर २०२५

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