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याद करता हूँ माँ

 

 

 


शब्दों में जितना ब्रम्ह उपस्थित है
ठीक उतनी ही दूरी बनी रहे
हम कहीं भी नहीं जाते तब भी
ब्रम्ह का वलय भी एकांत में वास करता है
माँ तुमने कितनी ही बार गीतों के बोलों में
इशारों से जताना चाहा और रंगों के विपरीत
शून्यता को भी
प्रदर्शनी के बाहर जो तस्वीरें हैं
उन्होंने भी बुलाया एकांत में अंतर्नाद के साथ
विरले संपर्कों के इच्छा फूल
कौन ढूँढता होगा भला
मिटटी भी हर दिन तुम्हारी ही तरह कहता था
सृष्टि से हार जाने वाली यंत्रणा सह
संपर्कों को विस्तृत करो
क्यूंकि हम चलते - चलते बहुत दूर निकल आये हैं
नदी पार की, संकरे पुल भी अब पहुँच चुके हैं
शौपिंग मॉल में
और उन प्रार्थनाओं के रूप में माँ !
आँखों के कोरों से फिसल रही है
अब कहीं सोचा जा सकता है
कुछ नहीं चाहिए माँ
अब और | 

-तापस राय
(मूल बांग्ला से हिंदी अनुवाद- मीता दास)
३० सितंबर २०१३

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