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माँ पहली शाला

 

 

 
जब से जाने लगे हैं कालेज
भूले पहली शाला को।

नाम पिता का पता स्वयं का
सीखे रिश्तों के अनुबंध
यति समय की गति पवन की
सकल सृष्टि के लय और छंद
जहाँ से सीखी पहली ओलम
समझे जीवन हाला को।

दो और दो से योग चार का
सबक पहाड़ा हमें सिखाया
उँगली पकड़ पकड़ कर हमको
घाट-घाट का नीर पिलाया
हाथ छुडाकर आज उसी का
जपते मन की माला को।

मैला आँचल लिए घूमती
घर का आँगन स्वयं बुहारे
किसे सौंप दूँ अपनी थाती
बैठी-बैठी पंथ निहारे
सोच में डूबी जिसने जन्मा
तुलसी, मीर, निराला को।

माँ की निश्छल ममता के
ऋण मे डूबा रोम-रोम है
माँ की सेवा किये बिना सब
व्यर्थ साधना, धूप-होम है
कर्ज चुकाना शेष रहा है
फेंक अभी मृगछाला को।

- बृजेश द्विवेदी अमन
२९ सितंबर २०१४

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