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माँ तुम ऐसा रूप धरो

 

 

 

दुर्गे
दुर्गा शक्ति बनो तुम
मत बनना इंद्राणी।

बेशक, हम सबको भाती है
नई चेतना सारी
नहीं चाहते आधी दुनिया
रहे सदा बेचारी

बनो इंदिरा
विजयलक्ष्मी
या झाँसी की रानी।

अष्टभुजी बहुशस्त्र सजी
कर रक्तिम खप्परवाली
दानव के सीने पर हो पग
क्रोधमयी माँ काली

जो इस
जग को करे कलंकित
मत गढ़ना कल्याणी

माँ तुम ऐसा रूप धरो
ना नजरें हों शर्मिंदा
ध्वज भी तेरा फर-फर फहरे
मर्यादा हो जिंदा

श्रद्धा
उपजे, नहीं वासना में
डूबा हो प्राणी।

- ओमप्रकाश तिवारी
१५ अक्तूबर २०१५

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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