अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

कंस, दुर्योधन सड़क पर
     

 





 

 


 




 


देख आँखें खोल कान्हा
दर्द में बेहोश यमुना
न कल–कल,
न ही जल

भर गयी स्रोतस्विनी के
देह में दुर्गंध
कालियों ने रौंद डाले
जिंदगी के छंद
तट उदासी से भरा है
नंद जैसे अधमरा है
हुआ छल,
न हलचल

हो गया असहाय अर्जुन
क्या लड़ेगा
अश्व सुनते ही नहीं, रथ
क्यूँ बढ़ेगा
वाण भी, गांडीव भी है
पर वहाँ तू ही नहीं है
बिना बल
हुआ दल

राधिकाएँ और द्रोपदियाँ
घिरीं हैं
पूतनाएँ मान पातीं हैं,
निरी हैं
आ गये बाहर निकलकर
कंस, दुर्योधन सड़क पर
बढ़े खल
हलाहल

आ गया है वक्त रण का
तुम सुनो
हारना हमको नहीं
नायक बनो
दूर कर दो पार्थ का भ्रम
मृत्यु से जूझे पराक्रम
इसी पल
यही हल

-- डा. सुभाष राय
३० अगस्त २०१०

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter