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सुनो, नया साल आ रहा है
 
गुज़रता हुआ यह साल,
देखा उसे
माह दर माह, दिन ब दिन
पिघलते हुए।
और देखा, साथ में आशाओं को,
आकांक्षाओं को भी
घटते संभलते हुए।
वे रूप बदलते-बदलते,
पिघलते-पिघलते,
बहुत छोटी हो गई हैं।
सुनो,
नया साल आ रहा है।
अब फिर आकांक्षाओं को
बड़ा करने का
समय आ गया है।
बड़ा अब उन्हें
इतना करें कि
मित से अमित हो जाएँ।
अगले साल
पिघलते-पिघलते भी,
साल के अंत तक
घटते-घटते भी,
बहुत बड़ी रह जाएँ।

- अमिताभ सक्सेना 
१ जनवरी २०१७

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