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एक कैलेंडर व्यर्थ हुआ
 
लो बीत गया फिर एक साल
फिर एक कैलेंडर व्यर्थ हुआ।

अटकीं आँधियाँ कलेजे में
चेहरों पर लटकी मायूसी
जनमनविश्वास ठगा सा है
कर गया तंत्र फिर जासूसी

सड़कों पर सपनों की किरचें
राजा भी तो असमर्थ हुआ।

शुभ शान्ति मन्त्र लिखते-लिखते
लिख गयी कलम आतंकवाद
कुछ सपने भटके सड़कों पर
कुछ खटमिट्ठी रह गयी याद

आवारा स्वार्थ नहीं माना
सारा सुधार भी व्यर्थ हुआ।

जागेंगे कुछ जागरण गीत
सोयेंगे हिंसा, घृणा, द्वेष
हो अभय हँसेंगे मंगलघट
स्वस्तिक को भय का नहीं लेश

देखेगा संवत नया कि जन-गण
फिर से सबल समर्थ हुआ।

- रामसनेहीलाल शर्मा      
१ जनवरी २०१७

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