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       दिसंबर जा रहा है

 

फिर से कुहरा धुंध बनकर छा रहा है
फिल कलेंडर से दिसंबर जा रहा है

चल रही हैं बर्फ सी
ठंडी हवाएँ
काँपती हैं अनमनी
चारों दिशाएँ
सूर्य अपनी कैजुअल निपटा रहा है

गेहुँओं में बचपना
आने लगा है
राग सरसों प्रेम का
गाने लगा है
आग आशा की कृषक सुलगा रहा है

अनुभवों की चाक पर
बीते हुए दिन
श्वेत से कुछ श्याम से
रीते हुए दिन
साँकलें नववर्ष फिर खटका रहा है

- धीरेन्द्र द्विवेदी
१ दिसंबर २०२१

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