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         कोविड वाले कल

 
दो हजार इक्कीस जा रहा
देकर कड़वे पल
स्याह रंग से पुते हुए हैं
कोविड वाले कल

असमंजस की ओढ़ी चादर
फिर से शहरों ने
ली अंगड़ाई शांत नदी की
फिर से लहरों ने
लौट रही सड़कों से वापस
घर को फिर हलचल

फिर से पाँव पसारे
दहशत ने सबके आगे
भरी नींद से जागे कोई
सर के बल भागे
काम न आए जीवन को
धन दौलत, निज भुज बल

सत्ता की ड्योढ़ी चढ़ पाना
उसका मुश्किल है
मगर रियाया सहज सुलभ है
उसकी मंजिल है
कितना सच है, झूठ है कितना
अरु है कितना छल

अपनापन भी हुआ है वंचित
देखो अपनों से
औ' भविष्य भी बिछड़ गया है
भावी सपनों से
समय सभी का रह-रह कर अब
हाथ रहा है मल

- रवि खण्डेलवाल
१ जनवरी २०२२

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