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         कलिका चटकी

 
नवगीतों की पुरवाई में
नवल आस की कलिका चटकी

किसलय आने को है आतुर
पेड़ों ने झाड़ी है डाली
नव सुगंध की आशा लेकर
बगिया सजा रहा है माली
फूलों के काँधे चढ़ आई
खुशियों की सोंधी सी मटकी

बीते वर्षों में बातों की
कहीं नुकीली फाँस लगी हो
नवल गगन में वही चाँदनी
शायद मधुरिम और सगी हो
नीलकंठ ने अमृत देने
नन्ही गरल-बूँद है गटकी

कर्मों के जो वीर बने हैं
तम भी उनसे घबराता है
उमंगों भरी हर चौखट को
गम दूर से हाथ हिलाता है
छल प्रपंच की झूठी पटरी
प्रीत दिवानों को है खटकी

उम्मीदों के नए सफर पर
हर्ष भरा जो झोला टाँगे
छींट चले हैं स्वप्न-बीज को
झिलमिल जुगनू ने जब माँगे
द्वार- द्वार भी थिरक उठे हैं
तोरण में जूही है लटकी

आएँगे अब रंग बसंती
फूलों की चौपाल सजेगी
मटकेगी सरसों दुल्हनिया
नए वर्ष के गीत बजेंगे
उठ चली डोली बहार की
हौले से फुनगी पर अटकी

- ऋता शेखर ‘मधु’
१ जनवरी २०२२

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