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विदा होने से पहले
 

अनवरत बहती नदी किनारे
वह पेड़ अब बूढ़ा हो गया है
दिवस की चटख धूप में
नीलांचल के बादलों से लेकर कपास
ठिठुरती मानवता को ढँकता है
खींचकर कुहासे की चादर
अस्ताचल की मद्धिम होती
ढिबरी के बुझने से पहले

निहारता है अपनी सूखी डालों को
देखता है स्मृति पटल पर
चहचहाती चिड़ियों के दल
हरी भरी डालियों की अलमस्त छाँव
युग यात्री मानव का उल्लसित रैन बसेरा
पाने स्वामित्व समस्त अवनी पर
हो हल्ला एवं पंचायतों का शोर
और फिर ..
फड़फड़ाती मँडराती नीड़ खोजती चिड़ियाँ
छटपटाती लहूलुहान धरती

साक्षी.. विगत के राग विहाग और अनुराग का,
उल्लास और रोशनी के परिधानों से सज्जित
नवदुल्हन निशा को मौन... करता है विदा
तारों खचित ओढ़नी में
रजनी भरती है माँग ले सिन्दूर
ऊषा की लालिमा से
करती है स्वागत भोर कालरथ पर सवार
किरणों की डोर थामें नूतनवर्ष का
और बूढ़ा पेड़ डाल देता है आशीर्वाद
आशा और उमंग के बीज भविष्य की झोली में
इतिहास के अलाव में जलकर विदा होने से पहले

श्रीकांत कांत
 

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