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अलविदा वर्ष...
बेसूरत वक़्त से गुजरते हुए
 

हम रोज-बरोज़
एक मरे हुए दिन की खाल में
सिगरेट के सुट्टे और चाय की चुस्कियाँ उड़ेल कर
उसे ज़िंदा करने की कोशिश में लगे रहे...
आवाजों और दृश्यों को गुलाम बना कर
हमने उनकी शक्लें एक सी कर दीं
और हम उन यक-सां शक्लों के
ऊबे हुए कैदी होते रहे...

साल के कोई से एक महीने-
और माह के कोई से एक दिन से
हमने अलग सूरत और मायने खत्म कर दिए
गो कि हमने पिछले ज़माने की खुश्गरेज़ कहानियां
उससे चस्पां कर रखी हैं ...

हमने तहा कर दिमाग में रख लिए चंद नाम
किसी एक खुशबू का नाम
किसी एक स्वाद का
या कि किसी गुनगुनाहट का कोई गर्म नाम
और उन्हें बारहा दुहरा कर खुश होते रहे...

अलविदा वर्ष...
तुम माज़ी के सैलाब में गुम हो जाओ...
और हमारी बचीखुची उम्मीदों की तामीर के लिए
इन हलचलभरी लहरों पर
अब एक नए वर्ष को नमूदार होने दो...
आमीन ...

सुनील श्रीवास्तव
३१ दिसंबर २०१२

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