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एक साल की चादर
 
प्रिय देव,
लो एक और क्रिसमस आ गया।
पिछली जनवरी से बुनने लगी थी
एक चादर...
२०१४ सितारों वाली!
वो भी पूरी होने आई अब।
एक पत्थर छोटा सा
किसी ऊबड़-खाबड़ समुद्र तट की
बड़ी सी चट्टान के पीछे छिपा हुआ।
हर बार तरसता है भीगने को ...
मगर लहरों की फुहार उस तक आती ही नहीं
चट्टान जो धँसी है
उस छोटे से पत्थर
और गीली खुशी के बीच।
कुछ ऐसा ही तो गुज़रा...
ये साल भी।
हम जितने एक-दूसरे के होते गए
उतने ही दूर-दूर रहे इस साल!
सोचती हूँ
इस दूरी ने प्यार को बढ़ाया
या
न मिल पाने की कसक ने,
प्यार के बावजूद हमें कहीं से खाली कर दिया।
एक बात कहूँ
बुरा तो नहीं मानोगे?
आग सिर्फ जलाती नहीं,
गर्मी भी देती है।
पानी सिर्फ डुबोता नहीं
प्यास भी बुझाता है।
किसी एक पहलू के न हो जाया करो
दिन और रात के बगैर तो
पृथ्वी की गति भी अधूरी है देव।
हाँ,
मुझे एक शिकायत है अपनेआप से
कि मैं तुमसे भी ज़्यादा आज़ाद होकर
तुम्हारी तरह क्यों नहीं जी सकती,
क्या मेरा स्त्री होना आड़े आ जाता है हर बार?
कभी-कभी एक कसैला स्वाद उभरने लगता है बरबस ही!
तुम ही कहो
प्यार की पूर्णता तो दो से मिलकर है ना
और फिर आत्मा का तो कोई जेंडर नहीं होता!
चोला छोड़कर भी
कोई आत्मा क्या ये दावा कर सकती है
कि “मैं मर्द हूँ, और तुम औरत!”
फिर क्यों हमारे आस-पास ये सब होता है देव!
खैर...
तुम फिर से उदास हो जाओगे
मैं नहीं चाहती
कि सर्द दिनों में
सीले मन से करो तुम
नए साल का स्वागत।
अरे हाँ
तुम्हारी बगिया के अंगूर अपने शबाब पर हैं
काले अंगूरों के उन गुच्छों में से
दो अंगूर निकाल लेना।
एक मेरा....
दूसरा तुम्हारे नाम का।
और वो फ़ाख़्ता ....
तुम्हारे आशियाने में घोंसला बना,
गर्मी दिया करती थी जिनको;
वे नन्हें परिंदे भी उड़ चले अपने नाज़ुक पंखों को तौलने!
अरे...
अचरज न करने लगना
यूँ ही चली आई थी मैं, भटकते हुये
और देख लिया कितना कुछ मन की आँखों से।
दो शाश्वत प्रेमी
और एक प्यार
इनसे ही मिलकर तो
बनता है संसार!
फ़ाख़्ता के बच्चे हों
या फिर काले अंगूरों का छोटा सा गुच्छा।
सुनो, तुम्हारे एहसास की इस चादर को
मैंने लपेट लिया है खुद से
२०१४ सितारों से सजी
एक पूरे साल की चादर!
तुम मुस्कुरा रहे हो ना...

- ऋषिकेश वैद्य
५ जनवरी २०१५

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