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समय की कील पर नूतन कैलेंडर
 
सूखती सी शाख में से
उगा इक कल्ला नया।
फिर समय की कील
पर नूतन कैलेंडर आ टँगा।

घुप अँधेरों में तिरीं
कुछ झिलमिलाती रश्मियाँ
डूबते को दिख रहीं
नजदीक आती किश्तियाँ

धुंध के उस पार
का मौसम खुला सा लग रहा।

तितलियाँ ले पीठ पर
उल्लास का परचम फिरें
नीड़ के निर्माण को कटि
फिर बयाओं ने कसे

पर्वतों की आड़ से
है दिन सुनहला झाँकता।

फर्श के मन आस
मंजिल से लगे सोपान की
एक आतुर सी प्रतीक्षा
भक्ति को वरदान की

है ठिठुरती धूप का तेवर
अभी भी गुनगुना।

हौसलों से खूँ-सनी 'ड्रेस'
'नोटबुक', 'टेबल' धुले
फिर डगर पर इल्म की
बस्ते लिये बच्चे मिले

डर भरी मासूम आँखें
हैं उठीं अब मुस्कुरा

- कृष्ण नन्दन मौर्य
२९ दिसंबर २०१४

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