अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

ऋतुपंछी ने सोहर गाई
 
देखो साधो
समय-बिरछ पर
नई धूप-कोंपल उग आई

पिछले दिन सब बुढ़ा गये थे
अंतिम दिन भी झड़ा रात कल
टेर रही है नई छाँव को
देखो, यह नवजाई कोंपल

इतने दिन चुप रहा
आज फिर
ऋतुपंछी ने सोहर गाई

आज सुबह से चली हवा जो
घुप सोनल है - मिठबोली है
साधू ने भी बड़े घाट के
मंदिर की खिड़की खोली है

धुंध-कुहासे छँटे
सो-रहे सूरज ने
फिर ली अँगड़ाई

पगडंडी पर बिछी ओस भी
हुई अचानक सोनबरन है
साँसों की आवाजाही में
नेहभरा इक अपनापन है

परबत के उस पार
झील पर
कहीं बज रही है शहनाई

- कुमार रवीन्द्र
२९ दिसंबर २०१४

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter