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किरणों के कोये
 
अहंकार का दूध पिलाया
नफरत में धोये।
पंन्द्रह में अब वही मिलेगा
चौदह में बोये।

चाल चलन सब आडे तिरछे
भेद भरी बातें
दिन के काँधे पर बैठी हैं
खौफ सनी रातें
नंग धडंगे गरम हवायें
तंद्रा में सोये।

खून सनी इन दीवारों को
ढकें कलेंन्डर से
मंन्दिर से हो मदिरालय से
उठे ववंन्डर से
अपने लिये खुशी ले आयें
रोये सो रोये।

भर पेटी मिष्ठान लुटाये
साहब, पउओं ने
जैसे-तैसे दिन काटे हैं
लउओं, झउओं ने
ठन्डे बस्तों में बन्दी हैं
किरणों के कोये।

रणवीर भदौरिया
२९ दिसंबर २०१४

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