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       पतंगों के मेले

 
हवाओं का पैगाम पाकर फिज़ा से
लगे आसमां में पतंगों के मेले

हुई रवि की संक्रांति ज्योंही मकर में
तुरत शीत ने अपने सामां समेटे

उड़ा जा रहा मन परिंदों की तरहा
कि मुट्ठी में डोरी उमंगों की थामे

बढ़े दिन खिली धूप ने कर बढ़ाया
चमन में नए रंग मौसम के बिखरे

मनाने लगी हर दिशा पर्व पावन
भुलाकर सभी दर्द गुजरे दिनों के

सखी भेज अपनों को तिल-गुड़ का न्यौता
चलो ‘कल्पना’ गीत गाएँ शगुन के

- कल्पना रामानी
१ फरवरी २०२१

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