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       एक पतंग-चार रंग

 
१.
छूकर गगन विशाल ये गौरव भरी पतंग
मदमाती उड़ती फिरे जैसे मस्त मलंग
जैसे मस्त मलंग द्वेष जाने ना निंदा
जैसे पंख पसार उड़े आज़ाद परिंदा
रंग बिरंगा ध्वज फहराने नभ के ऊपर
चली पुलक कर आज सधे हाथों को छूकर

२.
सीमा मेरी गगन है उडूँ किसी भी ओर
किन्तु गैर के हाथ में रहती मेरी डोर
रहती मेरी डोर नहीं वश खुद पर मेरा
चलूं सदा उस ओर जिधर चाहे रब मेरा
काटूँ या खुद कटूँ चाह मेरी कुछ भी ना
हूँ पतंग जानती सदा से अपनी सीमा

३.
इतराती घन चूम कर उड़ती हुई पतंग
गयी भूल कि उड़ने में किस किस का है संग
किस किस का है संगकि चरखी मांझा कन्नी
दुम की खातिर खर्च हुई है एक दुअन्नी
चले पवन अनुकूल बहारें खिल कर आती
ये सब न होता तो भला कैसे इतराती ?

४.
मानस के आकाश में स्मृतियों सी पतंग
उड़ती आती बेधड़क लिए सैंकड़ों रंग
लिए सैंकड़ों रंगहृदय उल्लासित करती
नीरवता को तोड़ अनेक स्पन्दन भरती
नीरस जीवन में बरसे जैसे मधु का रस
ऋतु बसंत आये पतंग हो जाए मानस

- अमित खरे
१ फरवरी २०२१

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