गुरुवर की
निर्मल दृष्टि सदा
आलोक-नाद
स्वर - स्वर भर्ती
हर तपन
जहाँ शीतल होती
पावन होती
मधुमय जगती,
सात्विक होता
जग का कण-कण
चेतनता भी
पल -पल पलती
सद्गुरु तुम
ऐसी मति कर दो
सत्कर्म लगें
तन -मन -धन भी
पुष्पायित हो
मन का उपवन
सुरभित हो
मानवता जन की।
रस की धारा
तुम स्रवित करो
शब्दायित हो
यह अग-जग भी,
करुणानिधि
दो बूँदों की आशा में
प्यासी क्यों हो धरती !
- मिथिलेश दीक्षित
१ सितंबर २०२४ |