बागों में बगियों में पीली बहार
मचल उठी फिर से है फागुनी बयार
सर्दी का होने लगा धीरे-धीरे अंत
मन को आनंद देने आ गया वसंतआई
नर्म कोपलें तरुओं की डाली पर
यौवन का नूर छाया कोयलिया काली पर
सरसों भी रीझ रही हरियाले खेत में
गौरैया फुदक रही आँगन की रेत में
जिधर देखो बिखरी हैं खुशियाँ अनंत
बौराए आमों पर बिखरा मधुमास है
जंगल में पावक-सा दमका पलास है
महुए ने बिखराई मदमाती गंध
बेबस मन निकल पड़ा तोड़ कर अनुबंध
फूलों की गंधों से भरा दिग दिगंत
-यशपाल सिंह रवि
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