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दो छंद

 

  चंपा और चमेली

चंपा और चमेली बेला कचनार झूम उठे
धरती ने धानी चुनरी-सी फहराई है
सुधि-बुधि भूले सुत सारंग सुगंध सूँघि
ऐसी वा बिसासी अमवा की अमराई है
राह के बटोहियों के हिय कौ हिराय लाई
ऐसी भृंगराज नैं बजाई सहनाई है
एक सुकुमारी सी कुमारी तरु-मल्लिका की
हाने वाली आज ऋतुराज से सगाई है।

 

आयौ है बसंत

आयौ है बसंत, घर नाहिं सखि कंत आयौ
पंथ हेरि हारि गई हमारी है
कुहुकि-कुहुकि के संदेसो सो सुनाय रही
अमवा की डारन के पाँव भये भारी है
हिय मैं हिलोर और मीठी-सी मरोर, उठै
पीर पोर-पोर, अंग-अंग में खुमारी है
मारि-मारि तारी हँसे वेदना कुँवारी, पिय
ऐसौ है अनारी एक चिठिया न डारी है।

-डॉ जगदीश व्योम

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