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रक्षा का बंधन

 

धागे में है गुंथा
वचन की रक्षा का बंधन

बचपन के अनुबंध इसी में
युवा स्फूर्ति के छंद इसी में
काल व्यतीत हुआ कितना भी
अनगिन प्रीति-प्रबंध इसी में

माथे पर जो लगा
अक्षत औ' रोली का चन्दन

रिश्ते बनते और टूटते
साथी मिलते और छूटते
किंतु हर बरस इन धागों से
स्नेहिल अंकुर नए फूटते

इसीलिए श्रावणी-
पूर्णिमा का करते वंदन

प्रकृति हरी, मन हरा भरा सा
चेहरे का स्वरूप निखरा सा।
व्रत रख वो कर रही प्रतीक्षा
घर औ काम काज बिसरा सा

कहाँ जगत में उपमा-
इसकी, प्रतिपल अभिनन्दन

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित
१५ अगस्त २०१६

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