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मकर संक्रांति
(तीन कविताएँ)
 
१- हे मकर के सूर्य

उत्तरायण की ओर बढ़ते
हे मकर के सूर्य!
हर एक की ज़िन्दगी में रोशनी भर दो
जो कभी क्षीण न हो
कोई भी किसी चमकीले पत्तों वाले
पौधे की जड़ें छाँट कर
उसे बौना न बना पाये
नई-नई कलियाँ खिलें
सुगन्ध बिखेरें।

२- पतंगें

सुनहरे आकाश में
तितलियों के
पर सी उड़तीं रंग-बिरंगी पतंगें
मन को भी साथ ले जाती हैं
जी चाहता है किरणों को सीढ़ी बना कर
सूरज को बाँहों में भर लूँ।

३- दुआयें दो

ठुमकती लोहड़ी
फिर संक्रान्ति पर्व
नई-नई उमंगें
खुशियों भरी चहल-पहल
लोहड़ी की आग में धान्य की आहुति देते
गोटे का दुपट्टा ओढ़े दमकते, मासूम चेहरे
लाल-सफेद चूड़ा पहने ताल देते मेहँदी रचे हाथ
ढोल की थाप पर थिरकते पाँव
दुआयें दो
ये सब यों ही खुशियों के इर्द-गिर्द
नाचते रहें।

- मधु प्रधान
१५ जनवरी २०१७

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