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खिचड़ी का रंग
 
सरसों के खेत खिलखिलाये
गेहूँ ने गीत गुनगुनाये
सर्दी में ठिठुरा सा है लेकिन
खिचड़ी का रंग बहुत भाये

मकर राशि की ड्योढ़ी पर पहुँचा
सूर्य अभी झाँक कर गया
पत्तों पर ओस का चमकना भी
सब ऋण बेबाक कर गया
अरहर है तनी हुई खेतों में
खड़ी–खड़ी अलसी अलसाये

गजक, रामदाना, लडुआ, तिलवा
ढूँढी, गुल्लैया की धूम
सुबह से महकती कड़ाही को
ताक रही हवा घूम–घूम
साँसों के हर कोने–अतरे में
सोंधापन बिखर–बिखर जाये

चूम रहीं अम्बर का पाला
किसिम–किसिम की उड़ीं पतंगें
कटता है कुछ, कुछ है जुड़ता
दाँव–पेंच में जुड़ी उमंगें
बचपन भी खूब खिलखिलाये
मौसम भी तालियाँ बजाये

– रविशंकर मिश्र “रवि”
१५ जनवरी २०१७

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