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दीपमालिके

   



 

दीपमालिके!
ऐसी ज्योति जगा दो मन मे
मिटे हृदय का अंधकार
फैले प्रकाश जीवन में

सदियों से तुम दीप–जड़ित
परिधान पहन आती हो
किन्तु तिमिर था जहाँ खड़ा
तुम उसे वहीं पाती हो
युग बीते, पर अंधकार यह
हटा नहीं तिल–भर भी
ज्योतिर्मय-पथ कभी कहीं पर
मिला नहीं पल भर भी

देवि !
ज्योति का पुंज बाँट दो
भूतल के कण-कण में

कौन लुटा, मिट गया कौन
है इसका कुछ भी पता नहीं
मैं पथभ्रांत- किधर जाऊँ,
कोई भी पथ दीखता नहीं
हुई विलीन निविड़–तम में
इस जीवन की हर आशा
कुछ भी देख न सका, हाय!
थक कर लौटी जिज्ञासा

जननि!
कुटिल-कालिमा हरो
ज्योत्स्ना भरो जन-मन में

-जय चक्रवर्ती
२० अक्तूबर २०१४

   

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