अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

धरें एक दीप

   



 

लरजता है, सहमता है, सभंलकर फिर भी जलता है
लगन की अगन से ही तो गगन का तम पिघलता है

चलन में बदमिजाजी है
हवाएँ विष वमन करती,
उजाले कैद के साझी
दिशाएँ तम सघन करती,
प्रलय की गोद में फिर भी किशन का रूप पलता है।

धरें एक दीप उस घर भी
जहाँ सोई हैं उम्मीदें,
जगें उस द्वार आशाएँ
जहॉं दहशत में हैं नींदे,
अंधेरे पथ पे दीपक का अमिट विश्वास चलता है।

तिमिर में घुट रही सॉंसें
जलाएँ दीप अंतर का,
अहम की जकड़ने खोलें
सजाएँ द्वार मंदिर का,
मनुज हो कर मनुजता की ऋचाओं को क्यों छलता है

- साधना बलवटे
२० अक्तूबर २०१४

   

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter