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दीप सरीखा बनकर जीना

   



 

रोशन करके सारे जग को
खुद अँधियारे ढोता है
दीप सरीखा बनकर जीना
कितना मुश्किल होता है।

जब जब बादल रहे घेरते
हमको घोर निराशा के
तब तब दीपक आता लेकर
कुछ पल जीवन आशा के।

तेज हवा में निविड़ निशा में
बस उजियारे बोता है।

इसकी कोशिश रही हमेशा
सबको राह दिखाने की
नहीं रखी है चाह कभी भी
इसने यश को पाने की

तिल तिल जलकर परमारथ में
बाती अपनी खोता है।

हार न मानी इसने अब तक
गहरी काली रातों से
आँख लडाकर बात सदा की
सारे झंझावातों से।

इसका अपना ठोस धरातल
नहीं उजाला थोथा है।

- बृजेश द्विवेदी अमन 
१५ अक्तूबर २०१६
   

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