अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

माटी का संदेसा

   



 

सुनो! सुनो! अपनी माटी का
संदेसा दीवाली में

दीये वही जलेंगे जिनमें
सोंधी-सोंधी गंध हो
बाती का भी रेशा-रेशा
सामाजिक अनुबंध हो

नहीं किसी को बिकना अबकी
परदेसी बिकवाली में

जिनकी आँखें सीमाओं पर
रात-रातभर जागतीं
लिसड़ रेत में भी खुश दीखें
कभी नहीं कुछ माँगतीं

कुछ विशेष तो ले ही जाना
उनके घर, भर थाली में

शोर नहीं, संकल्प गुँजाओ
अंबर तक उल्लास हो
ज्योति अखंड जगे हर मन में
पूरी सुख की आस हो

झूम उठे हर वय इस अवसर-
पर बचपन की ताली में

- कुमार गौरव अजीतेन्दु 
१५ अक्तूबर २०१६
   

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter