अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

     

         सज रहे कंदील

आई दीवाली तो घर घर जल गए कंदील ये
चाँद को भी मात देते सज रहे कंदील ये

रात मावस की अँधेरा घोर घिरता सामने
पर विजय का दर्प लेकर लो जले कंदील ये

जो सजाए घर रहे वो ही सदा बाहर टँगा
ध्यान तो दे कर सुनों क्या कुछ कहे कंदील ये

आज मंहगाई के कारण आदमी बेहाल है
हो रहे बाहर पँहुच से क्या करे कंदील ये

सब अलग ही रंग के आकार भी सबके ज़ुदा
हैं सभी सुन्दर मगर आला बड़े कंदील ये

आप के आने से जगमग हो गयी हैं महफिलें
आप की आँखों से बेहतर क्या लगे कंदील ये

लो-'अमित'-अब-इस-दिवाली-हो-गयी-रोशन-गज़ल
जो नहीं हम कह सके वो गा रहे कंदील ये

- अमित खरे
१ नवंबर २०२१

     

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter