अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

     

          कंदील सजती रही

घर की दहलीज पर, एक चुपचाप सी
वह अनोखी-सी कंदील सजती रही
जुगनुओं से है धुँधले उजाले तो क्या
वह दिलों में सितारों-सी जलती रही

जिनकी राहों में सूरज खिला ना कभी
उनको विश्वास का हौसला तो दिया
उनके जीवन में दुःख का अँधेरा न हो
इसलिये जल रहा नेह का हर दिया
एक कंदील सी जिंदगी आज भी
खुद सुलगती रही, खुद ही जलती रही,

लाख महलों में रोशन रहे जिंदगी
झोपड़ी में कभी भी अंधेरा न हो
आँसुओ में न डूबे उम्मीदों का नभ
हो उजाला कि जैसे सबेरा लगे
लाख दीपक रहे, जगमगाते मगर
वो अकेली मगर रोज जलती रही

रात कितनी भी काली, घनी हो मगर
रोशनी को कभी कैद मिलती नहीं
बुझ गये दीप सारे, नखत सो गए
रात भी चाँद बिन जब अमावस हुई
एक कंदील की अनबुझी सी किरन
बिन थके, बिन डरे, रात जलती रही

- पद्मा मिश्रा
१ नवंबर २०२१
     

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter