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       शहीद के घर दिवाली


तुम्हारे आँगन का बगीचा
पत्ती-पत्ती मौन
बर्फ की ओढ़नी ओढ़े बुरांश की कलियाँ
लजाती-सोखती स्वर्ण आभा
चोटी के मस्तक पर तिरती
नारंगी रवि-रश्मियाँ
तुम्हारे बगीचे में गोल मेज़ पर
रखे कॉफी मग से निकलती
कहवा की महक ने लपेटा मुझे
लगा कि तुमने उढाया है
गुनगुना शॉल
आवृत्तीयों के घेरे में खिल उठे
वे दिन जब तुम बैठे रहते थे
आँखों के सामने बिल्कुल अपने-से
तुम्हारी मूँगे जैसी आँखों में
छलक पड़ती हूँ- मैं बार-बार
और तुम बिना कहे
मेरे हो जाते थे कभी
सच कहूँ, तुम्हारे नाम का कॉफी-मग
आज़ भी रखा है मेरे सामने
कॉफी अब बेस्वाद लगती है
रोज़ भेजती हूँ ख़त चाँद के हाथों
न तुम और न ही तुम्हारा जवाब आता है
मन अकुलाने लगता है कभी-कभी
जल्दी लौट आओ सरहद से
मुझे देखने हैं श्वेत-बर्फीले क्वाँरे नजारे
तुम्हारी ब्याहता बनकर तुम्हारी
लौट आओ तुम्हारे नाम की लाल बिंदी
आज भी दमकती है मेरे माथे पर
लौट आओ जाँबाज
तुम्हारी बेटी भी अब
पापा कह तुम्हें बुलाने लगी है
उसी ज़िद है इस दिवाली
तुम्हारे साथ दीपक जलाने की
चले आओ कि उजली हों
रातें हमारी

- कल्पना मनोरमा
१ नवंबर २०२३
   

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