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         शृंगार अवनि का


जले दीप शृंगार अवनि का
झिलमिल-झिलमिल लगता
स्वर्ग उतर आया धरती पर
मणिदीपों में अमृत भरता

मुक्ता-माणिक जैसी लड़ियाँ
सात रंग छोड़ें फुलझड़ियाँ
अंबर धरा एक करती हैं
चढ़ रॉकेट में तारावलियाँ
फिर अनार के उजले दाने
उठकर पुन: धरा पर झरते
जैसे प्राण छोड़ता जीवन
पुनः धरा का आँचल भरता

कहने को हैं भौतिक खुशियाँ
तन-मन मगर पुलक से भरतीं
शिथिल हुए तन अवसादित मन
ज्योति-रश्मियाँ उमगित करतीं
पर्व सनातन संस्कार संग
संस्कृति को गतिमान बनाता
ज्योतिपुंज अवसाद मिटाकर
नई चेतना से जग भरता

- डॉ मंजु लता श्रीवास्तव 

१ नवंबर २०२३
   

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