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फूलझरनी भोर
 
फूलझरनी भोर
अँचरा में उरसकर
नवसमय का छोर
खड़ी यूँ मुसका रही है
मुझे मिलने आ रही है

बहुत मतवारी धुनें हैं
बड़ी भीनी गन्ध है
लग रहा जीवन कि जैसे
फ़सल-लिक्खा छन्द है
शौक़ ख़र्चीले हुए
महँगाई के इस दौर में
तिल-गुड़ी उल्लास का
सबसे अलग आनन्द है
हाथ में थामे
नियति का सूप
जिसको उम्र पल-पल गा रही है

उगते सूरज की एलबम में
जितने चेहरे हैं
नहीं अपरिचित कोई
सब तेरे या मेरे हैं
जिसे देखकर मन में पुलकन
जाग उठे अपना
या फिर वह जो महका देगा
रातों का सपना
सूर्य से ही सृष्टि
अपने अर्थ सारे पा रही है

- अश्विनी कुमार विष्णु
१२ जनवरी २०१५

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