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मुस्काए सूरज
 

सूरज के ढाबे पर

सूरज के ढाबे पर फिर से
दहकी है तंदूरी आग
मौसम आज परोसे मक्के
की रोटी सरसों का साग

इसका सादापन
प्यारे पकवानों पर भारी
मिट्टी सी है इसकी खुशबू, गुड़ से है यारी
जीभ हलों की इसको खाकर और तेज होती
बर्फीले खेतों को मक्खन-सा करके बोती
इसीलिए शायद मक्खन का
दिल से इसके अनुराग

रोज काल से
पेंच लड़ाकर ये जीता करता
धूप में माँझा तन का मंझा मुश्किल से कटता
मन-पतंग ने बाँध लिया है माटी से बंधन
बोझ हटा कल के लालच का छूती नील गगन
महक रहे हैं इसी स्वाद से गाँव,
खेत, घर, आँगन, बाग

धीरे धीरे सर्दी जाएगी गर्मी आएगी
बर्गर की कैलोरी तन में जमती ही जाएगी
कितने दिन तक मानव ऐसे कूड़ा खाएगा
इक दिन सूरज मॉलों में भी ढाबा खुलवाएगा
उस दिन जाड़ा खुद ले लगा
इस दुनिया से चिर बैराग

- धर्मेन्द्र कुमार सिंह सज्जन
१२ जनवरी २०१५

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