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एक बार फिर
 
एक बार फिर नभ को
रक्तिम कर जाता है
सूरज जो बार-बार
पश्चिम को जाता है

कितनी ही बार तो
बदले है तापमान
कितनी ही बार रंग
बदले है आसमान
कितनी ही घिर आएँ
मेघों की टोलियाँ
कितनी ही रात दें
तिमिरों को योगदान

फिर अपने आने का
वादा कर जाता है
सूरज जो बार-बार
पश्चिम को जाता है

रोज़-रोज़ आया जो
चिड़ियों के संग-संग
रोज़-रोज़ देखे है
दुनिया के रंग-ढंग
रोज़-रोज़ मेहनत जो
करता है हाड़-तोड़
फिर भी मुस्काया है
जिसका हर अंग-अंग

सोने से पहले वो
सपने बो जाता है
सूरज जो बार-बार
पश्चिम को जाता है

- पंकज परिमल
१२ जनवरी २०१५

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