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संक्रांति पर्व जब आए
 
सूरज खेले आँख मिचौनी
चंन्दा नज़र न आये
सर सर डोले साँपिन पुरवा
थर थर हाड कंपाए

कोठे में बेशर्म रज़ाई
लेटी आँख तरेरे
ऊपर से ये बूँदा-बाँदी
डाल रही है डोरे

अघियाने की आग, धुआँ
धक्कड ही और उडाये

मौसम की मनमरजी भी अब
ऐसी नहीं चलेगी
चीर शीत का गात गुनगुनी
धूप सुखद निकलेगी

आग जलेगी क्रांति-धर्मी
संक्रान्ति पर्व जब आये

धरती पर सूरज की नजरें
अभी बहुत टेढी हैं
इसी लिये तो दालानों में
छाँव-छाँव पौड़ी हैं

उत्तर के समुचित उत्तर से
बँधी गाँठ खुल जाये

- रणवीर भदौरिया
१२ जनवरी २०१५

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