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सूरज का खेला है
 
संक्रान्ति की बेला है
सूरज का खेला है

रात के अँधेरे में
जुगनू अनगिन
थकती हैं आँखें
तारे गिन गिन
कलरव करते हैं खग
लगा कोई मेला है

जगती है भोर
लिये शीतल समीर
उगने को दिनकर
है, सागर गंभीर
सप्त रश्मियों का रथ
उसका अलबेला है

उड़ती दिशाओं में
साँसों की भाप
भोर स्नान भक्तों का
हरता है पाप
नाद शंख घंटे का
नदी तलक फैला है

- सुरेश पंडा
१२ जनवरी २०१५

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