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वही पुराना सूरज
 
सूरज रे जलते रहना है
परहित में गलते रहना है

तुझे देख चेतन अँखुआया
नभ ने अमृत-जल बरसाया
मुस्काती बयार फिर डोली
धरती ने भर ली हर झोली

स्वाद-गंध-रस-रूप गर्भ से
जीवनभर फलते रहना है

प्रकृतिपरक, शुचि परम्पराएँ
जन-मन का आँगन महकाएँ
तीज और त्योहार अनोखे
तू ही रचता बैठ झरोखे

पल-छिन-दिवस-मास-वर्षों में
बन उजास पलते रहना है

ऋतुएँ तीन सुघर बालाएँ
धरती पर अल्पना रचाएँ
उत्तर-दक्षिण आना-जाना
तेरा स्थिर है नहीं ठिकाना
रे बन्जारे! ठहरेगा या
इन्हें हाथ मलते रहना है?

- उमा प्रसाद लोधी
१२ जनवरी २०१५

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