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सावन आया झूमकर
 

 

सावन आया झूमकर, बरस रहा आकाश।
जल की बूँदें दे रहीं, सुख का मृदु अहसास।।
सुख का मृदु अहसास, हुई अल्हड़ पुरवाई।
विरही हुए अधीर, काम ने आग लगाई।
'ठकुरेला' कविराय, स्वप्न जागे मनभावन।
जगी मिलन की आस, लौटकर आया सावन।।

छम-छम छम-छम जल गिरे, बरस रहा आनंद।
मोर, पपीहा, कोकिला, गायें मिलकर छंद।।
गायें मिलकर छंद, सभी की मिटी उदासी।
गूंजे आल्हा, गीत, मल्हारें, बारहमासी।
'ठकुरेला' कविराय, घुल रही मन में चम-चम।
थिरके सबके गात, थिरकती पावस छम-छम।।

पानी बरसा गगन से, वसुधा हुई निहाल।
नदियाँ, नाले, कूप, सर, सब ही मालामाल।।
सब ही मालामाल, खुशी चौतरफा छाई।
महकी सौंधी गंध, प्यार की ऋतु ले आई।
'ठकुरेला' कविराय, लगा धरती इतरानी।
सहसा आई लाज, हो गयी पानी पानी।।

लेकर घट जल से भरे,घन दौड़े चहुँ ओर।
मन चातक पागल हुआ, रह रह करता शोर।।
रह रह करता शोर, प्रेम के राग सुनाये।
काश, विरह की पीर, किसी बदली तक जाये।
'ठकुरेला' कविराय, जगत का सब कुछ देकर।
हो यह जीवन धन्य, प्यार के दो पल लेकर।।

- त्रिलोक सिंह ठकुरेला
२८ जुलाई २०१४

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