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         भीगे भाव प्रपात में

 
 
हँसे खेत खलिहान सब,इस मौसम बरसात में
पाकर प्रेम फुहार को, भीगे भाव प्रपात में।

चूल्हा सीला देखता, कब उसमें भी आग हो
जब निर्धन की झोपड़ी, टप-टप टपके रात में।

बसी गृहस्थी कोसती, ऋतु भर की अति वृष्टि को
मनुज कमाई डूबती, मौसम के आघात में।
सुन ध्वनि दादुर मोर की, धँसी सड़क यह सोचती।
दुर्घटना कब तक बचे, सुख दुख के आयात में।

नित पानी में तैरता, दावा क्षेत्र विकास का
बंद पड़ी हैं नालियाँ, सरकारी उत्पात में।

वृक्षारोपण अब करें, रोकें नद्य जमाव को
पूरी हो परियोजना, देरी क्यों हो बात में।

क्लांत नीतियाँ हो व्यथित, समाधान को ढूँढ़तीं
पावस कब लेकर चले, जीवन सुखद प्रभात में।

-अनिता सुधीर आख्या
१ अगस्त २०२५

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