अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर


         अब जा कर टूटी है वर्षा

 
 
अब जा कर टूटी है वर्षा
वर्ना तो अटल पर्वत बन कर
पूरे चौमासे भर टिकी रही है
सृष्टि के सामने
कितने ग्लेशियर धराशायी हुए
कितने मकान तैरते हुए चले गए
मीलों दूर
फिर भी वर्षा टूटी नहीं
चिंघाड़ती रही किसी खूंखार
बाघिन की तरह

डकराती रही अपने रौद्र रूप में
पर भादों के जाते जाते शायद
टूट गयी है वर्षा
स्वागत में एक नयी ऋतु के
शिशिर ऋतु के
नई कोंपलें फूटेंगीं
नया कलरव होगा
नया-नया-सा आसमान होगा
नयी-नयी-सी धरा होगी
क्यों कि
अब जा कर टूटी है वर्षा

- आभा सक्सेना 'दूनवी'
१ सितंबर २०२५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter