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         बरसाती फुहार

 
 
एक प्रस्तुति
धरा की अचंभित प्रकृति
वो बाँधती तन की थिरकने
और साधे मन की उड़ान

चलते रहे सरेराह
टेढे-मेंढे कदमों को थामकर
अब ठहर जरा मेघो की बौछारें
कहे पुकार
अंतर की तपन-
कितने मौसमों से हो गुजरी

मैं बावरी सिसकी संभली
रिवाजों और दस्तूरों की बंद साँकलों से झाँकती
अपनी अनुभूतियों में रंगीन तितलियाँ बिखेरती
कितने क्षोभ-लोभ कितनी ग्लानि
निन्दा की जमी परतें
आकर बेधती हैं
मलय पवन की शोख नशीली हरकतें

मैं इठला चली सुहानी बरसती फुहार में
मन बावरा अब नही रुकनेवाला
तुम क्यों छिपी हो ओट में
बादलों ने छेड़ी
तान सुरीली
आओ खिलकर हँस-गा लें
बूँदों की ताल-सरगम पर
मयूर-सी करें झंकार मुस्कान भर

- अर्चना श्रीवास्तव आहना
१ सितंबर २०२५

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