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         जब बादल घिरते हैं

 
 
जब बादल घिरते हैं
मन बज उठता है किसी पुरानी धुन सा
जैसे किसी भूले हुए आँगन में
लौट आए अचानक कोई बिछड़ी छाया
एक भीगी सी गंध धीरे से आ बैठती है
देहरी पर स्मृति की

कागज़ की नावों में भरते थे जो हँसी
वो अब भी तैरती है

स्कूल के मैदान की मिट्टी पाँवों से लिपटती हुई
वो बचपन की उन्मुक्त दौड़ें अब बादलों के साथ
सपनों में उतरती हैं

फिर एक दिन
बरसात ने बदल दी भाषा अपनी
बूँदें चुप थीं पर दृष्टियाँ बोलती थीं
धूप नहीं थी पर उजाला था
उस मौन में जो जन्मा
साथ भीगने से था

आज भी
जब पहली फुहार टकराती है खिड़की से
मन टटोलता है भीतर कहीं
खोई हुई एक साँस को

रिमझिम बूँदें
जैसे कोई पुरानी चिट्ठी फिर से खुल रही हो
तेज़ बारिश जैसे भीतर की तमाम धूल
बहा ले जाती हो

अब भीगना
केवल जल से नहीं होता
कभी किसी ध्वनि से
कभी किसी रंग से
कभी अपने ही अतीत की परछाई से

मैं आज भी दरवाज़ा खोल देती हूँ
न किसी के आने की प्रतीक्षा में
न खुद के लौटने की

बस इसलिए कि
जब बादल घिरते हैं
मन कोई पुरानी धुन-सा बज उठता है
और मैं…
फिर से भीग जाना चाहती हूँ

- भावना सक्सेना
१ सितंबर २०२५

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