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         कुछ सुधियाँ

 
 
बीते पल की कुछ
सुधियाँ है लेकर आता
अपना तो पावस से बस इतना ही नाता

तप्त हृदय की
आकर मेघा प्यास बुझाता
धरती और पावस का जन्म जन्म का नाता
सरस हुआ जब हृदय धरा का
चहुँ दिश फैली हरी पताका
कली पुष्प
वृक्ष और लतिका धुलकर हर पत्ता मुस्काता
डाली डाली झूमे मद में
पी मकरंद भंवर उन्मादित
कैसी-कैसी आकृतियों में
उमड़ घुमड़ मेघा आच्छादित
रात अमावस में
जुगनू दीपक बन जाता
धरती से
पावस का कितना गहरा नाता

हरी चुनरिया ओड़ हुई है
धरा सुहागिन
सराबोर है जल से
गलियाँ और हर आँगन
सधः स्नान किया लगता हर वृक्ष है पावन
मिट्टी की सोंधी खुशबू से महका उपवन
ताल तलैया मे भर कर जल है इठलाता
धरती और पावस का कितना
गहरा नाता

रिमझिम बारिश में आँगन में
खूब नहाना
पोखर गढ्ढों में
कागज़ की नाव चलाना
हाथों में मेंहदी की खुशबू पाँव
जमे थे झूलों पर
चाय पकौड़ों की खुशबू भी
उठती रहती चूल्हों पर
यादों में ही वक्त वो आकर
बहला जाता
अपना तो पावस से बस
इतना ही नाता

सखियों का जमघट था
और थे मेले ठेले
मिट्टी के चूल्हा चकिया से खूब थे खेले
बर्फ़ के गोले की चुस्की
मटके वाली कुल्फ़ी
ऊँचे स्वर में सखियों के संग गाते कजरी
वक्त वो
फिर हमको है अपने पास बुलाता
अपना तो पावस से
बस इतना ही नाता

- मंजू सक्सेना
१ सितंबर २०२५

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