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         काली घटाएँ

 
 
हाँ छाईं तो सावन की काली घटाएँ
मँडराई भी देर तलक
मेरी ऊॅंची सँकरी छत पर
खूब लगाए चक्कर मेरे शहर के
पर बरसीं नहीं

लबालब आँसुओं से भरी आँखों से
रही खोजती
ड्योढ़ी पर की निंबिया
अमुआ की बगिया
कजरी के बोल
मेंहदी की खुशबू
झूलों के पेंग
हरी गुड़ियाँ
पायल की छमक

फिर कसकर भींच अपने होंठ
पीकर सारी बारिश
भीतर ही भीतर
उड़ गईं दूर बहुत दूर
पहाड़ों जंगलों के निर्जन देश में
और
गले लग एक एक पेड़ के
एक एक पहाड़ी के
रोई ऐसे हिलक हिलक
जैसे माँ बाबू के जाने के बाद
पहली बार
मायके आई बिटिया

- नमिता सुंदर
१ सितंबर २०२५

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